Wednesday, September 16, 2015

एक और मुलाक़ात

एक पुरानी डायरी टकरा गयी आज 
पलटा तो मानो वक़्त पलट दिया 
बिखर  बिखर गए थे सफ़हे,
अल्फ़ाज़ मगर सलामत थे सारे

चंद फूल थे, रख लिए हैं सँभाल कर 
कुछ सूखे पत्ते थे जो जला दिए
ये पत्तियाँ जो अब तक हरी हैं,
क्या करूँ इनका, कोई कुछ मशवरा दो 

Tuesday, August 04, 2015

खिड़की खुलती थी जिधर मेरी, एक दीवार बन गयी है,
चाँद को मैं और मुझे अब चाँद नहीं मिलता

ज़माना पूछता रहता है, अब क्यों नहीं लिखते
है कागज़ भी कलम भी, अब कोई मक़सद नहीं दिखता

सबा भी ढूंढने आई सुख़नवर कोई, कह दिया मैंने,
मर गया ग़ालिब, इधर अब कोई नहीं रहता