Wednesday, September 16, 2015

एक और मुलाक़ात

एक पुरानी डायरी टकरा गयी आज 
पलटा तो मानो वक़्त पलट दिया 
बिखर  बिखर गए थे सफ़हे,
अल्फ़ाज़ मगर सलामत थे सारे

चंद फूल थे, रख लिए हैं सँभाल कर 
कुछ सूखे पत्ते थे जो जला दिए
ये पत्तियाँ जो अब तक हरी हैं,
क्या करूँ इनका, कोई कुछ मशवरा दो