Thursday, September 24, 2009

भूल नहीं पाऊंगा

इक आहट पर जो,
आँखें उठाई तो,
देखा सामने वो है...


कोई था उसके साथ,
बिलकुल मेरे ही जैसा
शायद वो मैं ही था...


बातें करते रहे देर तक,
आ गए थे बहुत पास,
अनजाने ही दोनों...


आँखें बंद हुई, और फिर
आँख खुल गयी...

उफ़ ये आवाज़ कैसी..

सामने अलार्म छोड़कर,
और कुछ भी न था,
आये या न आये मुझको यकीन,
पर हाँ ये सपना ही था...


कुछ सपने, सुना है, सच हो जाते हैं..
सच हो न हो,
ये सपना, भूल नहीं पाऊंगा..

Wednesday, September 23, 2009

A dedication

You may think he’s hurt,
But you’re wrong dear,
The writer within him,
Gets the message clear…

Friendship isn’t all about,
Praising you day and night,
Its about telling the truth,
And keeping you right…

You did the same today,
And I am proud of you,
Again, he hasn't written good,
Still, Ambuj dedicates this to you…

Monday, September 21, 2009

ख़ुदा से बातें

पहले तो समझा,
कि वो ऑनलाइन ही नहीं,
फिर लगा शायद,
अदृश्य (invisible) हो,
ऑफलाइन सन्देश भी छोड़ा,
पर सब बेकार!
अब आया समझ में हमारी,
हमें ही दी जा रही है सजा,
वो तो है ऑनलाइन,
हमें ही block कर दिया गया है!

उफ्फ़, बेकार है ख़ुदा से बातें करना..


Saturday, September 19, 2009

IITR Diaries


We will always remember,
These great IITR days...
With friends whole night,
Talking and enjoying lays...

Going to class each day,
As early as nine or eight...
Missing the mess breakfast,
On waking up a bit late...

Sharing all joyous moments,
Having chaapo for everything...
Its someone's birthday,
Let's eat, drink, dance and sing...

Copying the tutorials,
Just before the submission...
Completing the lab records,
In the class, our only mission...

Night outs before each exam,
Forgetting after exam days...
We will always remember,
These great IITR days...

Wednesday, September 16, 2009

मैं और मेरे जज़्बात

बादल यहाँ भी थे बरसने ही को;
हम भी भीड़ में तन्हा तन्हा से थे;
पर न हमारी कलम रुसवा थी और न हम;
तभी तो उठाई कलम और कुछ लिखा था;
पढ़े जो हमने खुद के ही लिखे शब्द;
इरादा बदल डाला था बादलों ने;
और हम भी शायद तन्हा न रहे थे;
लिखता ही जा रहा हूँ तब से आज तक;
और अब हमारे बीच कोई तीसरा नहीं ;
बस मैं हूँ और मेरे जज़्बात हैं ;
जो मौके बेमौके कभी कभी,
उतर आते हैं कागजों पर...

Monday, September 14, 2009

मैं हिंदी हूँ

कितना आसान है,
कितना आसान है तुम्हारे लिए,
मुझे बस एक दिन याद करना,
साल भर गालियाँ देकर,
पूरे साल में बस एक दिन,
मेरी तारीफों के पुल बांधना,
मुझसे किये पुराने वादों को,
फिर से बेमतलब दुहराना,
अब तो ये वादे झूठे नहीं लगते,
क्योंकि यकीन हो आया है अब मुझे,
तेरे सारे वादे झूठे...
याद आता है सन पचास का,
वादा था कोई पंद्रह साल का,
बीते हैं मेरे इंतजार में,
उन्सठ या कोई साठ साल अब,
अब तो जान गए मुझको तुम,
या अब भी हो अनजान अंग्रेजों,
मैं हूँ तेरी मातृभाषा,
हाँ हाँ मैं हिंदी ही हूँ....

Saturday, September 12, 2009

फेर समय का

सपनो की दुनिया में गया हूँ,
याद आ रहे हैं बीते दिन,
जब रोज शाम क्रिकेट होती थी,
अब देखने का भी वक़्त नहीं है.

क्या दिन थे सुनहरे वो अपने,
खोये ख्वाबों में रहते थे हर पल,
क्या पता था दिन ऐसा आएगा,
जब सोने को इक रात नहीं है.

समय ने फेरा कैसा लिया ये,
सब दूर हो गए हैं हमसे,
बेगानों की बात मत करो,
अपनों का भी साथ नहीं है.

किसे पता था ऊपर चढ़ने का,
होता है इतना बुरा अंजाम,
खो गए हैं शिखरों पर आकर,
कोई भी अपने पास नहीं है.

Thursday, September 10, 2009

खोये हो अपने ही ख़यालों में,
कोई ग़म नहीं...
पर हर घडी है जिसको तेरा ही ख़याल,
वो भी तो कम नहीं...