Wednesday, September 16, 2009

मैं और मेरे जज़्बात

बादल यहाँ भी थे बरसने ही को;
हम भी भीड़ में तन्हा तन्हा से थे;
पर न हमारी कलम रुसवा थी और न हम;
तभी तो उठाई कलम और कुछ लिखा था;
पढ़े जो हमने खुद के ही लिखे शब्द;
इरादा बदल डाला था बादलों ने;
और हम भी शायद तन्हा न रहे थे;
लिखता ही जा रहा हूँ तब से आज तक;
और अब हमारे बीच कोई तीसरा नहीं ;
बस मैं हूँ और मेरे जज़्बात हैं ;
जो मौके बेमौके कभी कभी,
उतर आते हैं कागजों पर...

3 comments:

ओम आर्य said...

bilkul sahi kaha ek samay aisa bhi aata hai ki ......jajbato ke bahut karib pata hai .........our koi tisara nahi hota hai....

स्वप्न मञ्जूषा said...

और अब हमारे बीच कोई तीसरा नहीं ;
बस मैं हूँ और मेरे जज़्बात हैं ;
जो मौके बेमौके कभी कभी,
उतर आते हैं कागजों पर...
dilon ke zazbaaton ne kagaz par utar kar hi to sab kuch rach diya hai...
bahut khoob sochte ho aur likhte bhi ho..
likhte raho aur apne khayalon se hamein avagat karate raho..

Ambarish said...

bas aap aise hi aashirvaad dete rahiye.. likhta rahunga...