पिछले कुछ दिनों से जो चल रहा है देश में, देख कर बड़ी तक़लीफ़ होती है। हर छोटी बड़ी घटना को देशव्यापी आंदोलन बनाने की कोशिश की जाती है। ये चल रहा है, 'मीडिआ' की बदौलत चल रहा है और देश को काफ़ी नुक़सान पहुंचा रहा है। ये भी एक चलन हो गया है कि कोई ऐसा मुद्दा खोजो जिससे बहुत सारे लोगों का फायदा जुड़ा हुआ हो, मुद्दे को उठाओ, 'सोशल मीडिया' और 'पारम्परिक मीडिया' का इस्तेमाल करो, भीड़ इकठ्ठा करो और फिर जिसे चाहो उसे धमकाओ। डरने की बात नहीं है क्योंकि हमेशा एक पार्टी तो आपके पक्ष में रहेगी ही। मैं किसी पार्टी को अच्छा या बुरा नहीं कह रहा। पर ये तय है कि अगर आप सत्ता पक्ष के ख़िलाफ़ हैं तो विपक्ष खुद-ब-खुद आपके साथ खड़ा हो जायेगा। चाहे जो भी सत्ता और विपक्ष में रहे।
याद कीजिये पटेल आरक्षण आंदोलन। शुरुआत हुई गुजरात के एक हिस्से से। उनकी मांग कितनी जायज़ है, ये एक अलग बहस का मुद्दा है, वो फिर कभी। फिलहाल मुद्दा ये है कि किस तरह एक इंसान जिसका कल तक कोई औचित्य नहीं था, आज एक पूरे समुदाय का मसीहा बन गया। मेरे फेसबुक मित्रों में गुट बन चुके थे। लोग या तो साथ थे या खिलाफ थे। फिर हुआ दादरी काण्ड। होना ये चाहिए था कि एक दुर्भाग्यपूर्ण हादसे की निंदा की जाये और माहौल को सुधारने की कोशिश की जाए। पर हुआ क्या? दो पक्ष बन गए हमेशा की तरह, तलवारें लिए तैयार। देशव्यापी आंदोलन शुरू हो गए, विश्वविद्यालयों में कार्यक्रम हुए, लोगों ने सम्मान लौटाए और टीवी चर्चाओं में जमकर वक़्त बर्बाद किया गया। अंत में नतीज़ा हालाँकि कुछ नहीं निकला। तब तक लोग लड़ते रहे जब तक कोई नया किस्सा नहीं आया और जैसे ही नया किस्सा आ गया, इस किस्से को किसी धारावाहिक का पिछला भाग समझ कर लोग आगे बढ़ गए। एक नया किस्सा आया - रोहित का। उसपर कुछ आरोप लगाये गए थे, विश्वविद्यालय प्रशासन ने बिना गंभीर जाँच किये एक फैसला सुना दिया और रोहित ने संघर्ष करने की बजाय दम तोड़ना आसान समझा। मीडिया और राजनीतिक दलों के लिए बहुत आसान और फायदेमंद है एक व्यक्तिविशेष के संघर्ष को पूरे समुदाय का संघर्ष बताना, खासकर तब जब वास्तविकता में भी कुछ इतिहास रहा हो उस संघर्ष का। अगर आगे चलकर यह साबित होता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने जो कदम उठाये थे वो रोहित की जाति से प्रेरित थे, तो यह निश्चय ही निंदा का विषय होगा और दोषी लोगों के खिलाफ कारर्वाई होनी चाहिए। किन्तु ज़रा सोचिये कि जिस तरह से बिना जाँच के फैसला सुनाया जा रहा है, वह क्या उसी गलती दोहराना नहीं है जो प्रशासन ने किया? जिस तरह से इसे एक व्यापक जातिगत आंदोलन का रूप देने की कोशिश की जा रही है, वह क्या लाश के ऊपर राजनीति करना नहीं है? जिस तरह का दुष्प्रचार किया जा रहा है, क्या वह जोड़ने की बजाय और तोड़ने का काम नहीं करेगा? कुछ दिन और बीते, फिर जेएनयू की घटना हुई। कुछ छात्रों ने कुछ बयान दिए या नारे लगाये जो कुछ लोगों को आपत्तिजनक लगे। मामले औपचारिक शिकायत होनी चाहिए थी, स्वतंत्र जाँच होनी चाहिए थी और फिर न्यायोचित फ़ैसला सुनाया जाना था। पर सब्र किसे है यहाँ। राजनीतिक दल, मीडिया और आम लोग, सब ने अपना अपना पक्ष पकड़ा और लग गए। अभी कुछ पहलू पेश करता हूँ, देखिएगा किस तरह से लोग अपनी अपनी सहूलियत के हिसाब से इसे अलग अलग रंग दे रहे।
इस मसले पर तो मैं कुछ नहीं बोल सकता। कोशिश की मैंने तथ्य पता करने की पर कुछ मिला नहीं जो इसकी पुष्टि या खंडन कर सके।
मैं इस बात से कतई इनकार नहीं कर रहा कि विपक्षी पार्टियाँ सरकार के अच्छे काम से ध्यान हटाने के लिए इस तरह के मुद्दों को हवा दे सकती है। पर कुछ मित्र इसे और आगे ले कर चले जाते हैं। नीचे दो कविताओं के अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मुझे फेसबुक पर मिले।
पहली कविता दर्शाती है कि कानून व्यवस्था से कुछ लोगों का विश्वास उठ गया है और लोग एक अलग तरह के न्याय की बात करने लगे हैं जो कि भारत के संविधान को शोभा नहीं देता।
दूसरी कविता न सिर्फ हमारे प्रधानमंत्री का अपमान करती है बल्कि न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय पर भी सवाल उठाती है। अति उत्साह में लोग अति कर जाते हैं। इसी तरह के अति उत्साह का नतीज़ा है नीचे प्रस्तुत तस्वीर।
बिना जांच पड़ताल किये फैसला सुना देना बहुत आसान होता है, पर उससे पहले ये सोचना जरुरी नहीं समझा गया कि इससे जे एन यू के छात्रों पर क्या असर पड़ेगा। मैं इसलिए ये समझ सकता हूँ कि जब भी आई आई टी या आई आई टी रूड़की के बारे में कुछ भी नकारात्मक ख़बर या टिप्पणी पढ़ने को मिलती है तो बहुत बुरा लगता है।
तो कुल मिलाकर बात ये है कि घटना चाहे जे एन यू की हो या दादरी की या आरक्षण की, राजनीतिक पार्टियाँ हमें बाँटने का काम करती रहेगी, मीडिया टीआरपी के लिए मुद्दों को विवादास्पद बना कर उछालती रहेंगी और सोशल मीडिया पर अफवाहों का बाज़ार गर्म रहेगा। तो मेरी आपसे बस इतनी सी गुज़ारिश है कि जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से अफ़वाहें ना फैलाएं ना फैलने दें, उन लोगों को पहचानें जो बाँटने की कोशिश कर रहे हैं, उनका बहिष्कार करें और सकारात्मक सोच को आगे बढ़ाएँ। ये इसलिए जरूरी है कि देश के हालात से सबसे ज्यादा हम और आप जैसे आम लोग प्रभावित होते हैं।
कभी कभी लगता है पत्थर पे सर फोड़ रहा हूँ, पर उम्मीद है शायद पत्थर कमजोर निकले!
याद कीजिये पटेल आरक्षण आंदोलन। शुरुआत हुई गुजरात के एक हिस्से से। उनकी मांग कितनी जायज़ है, ये एक अलग बहस का मुद्दा है, वो फिर कभी। फिलहाल मुद्दा ये है कि किस तरह एक इंसान जिसका कल तक कोई औचित्य नहीं था, आज एक पूरे समुदाय का मसीहा बन गया। मेरे फेसबुक मित्रों में गुट बन चुके थे। लोग या तो साथ थे या खिलाफ थे। फिर हुआ दादरी काण्ड। होना ये चाहिए था कि एक दुर्भाग्यपूर्ण हादसे की निंदा की जाये और माहौल को सुधारने की कोशिश की जाए। पर हुआ क्या? दो पक्ष बन गए हमेशा की तरह, तलवारें लिए तैयार। देशव्यापी आंदोलन शुरू हो गए, विश्वविद्यालयों में कार्यक्रम हुए, लोगों ने सम्मान लौटाए और टीवी चर्चाओं में जमकर वक़्त बर्बाद किया गया। अंत में नतीज़ा हालाँकि कुछ नहीं निकला। तब तक लोग लड़ते रहे जब तक कोई नया किस्सा नहीं आया और जैसे ही नया किस्सा आ गया, इस किस्से को किसी धारावाहिक का पिछला भाग समझ कर लोग आगे बढ़ गए। एक नया किस्सा आया - रोहित का। उसपर कुछ आरोप लगाये गए थे, विश्वविद्यालय प्रशासन ने बिना गंभीर जाँच किये एक फैसला सुना दिया और रोहित ने संघर्ष करने की बजाय दम तोड़ना आसान समझा। मीडिया और राजनीतिक दलों के लिए बहुत आसान और फायदेमंद है एक व्यक्तिविशेष के संघर्ष को पूरे समुदाय का संघर्ष बताना, खासकर तब जब वास्तविकता में भी कुछ इतिहास रहा हो उस संघर्ष का। अगर आगे चलकर यह साबित होता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने जो कदम उठाये थे वो रोहित की जाति से प्रेरित थे, तो यह निश्चय ही निंदा का विषय होगा और दोषी लोगों के खिलाफ कारर्वाई होनी चाहिए। किन्तु ज़रा सोचिये कि जिस तरह से बिना जाँच के फैसला सुनाया जा रहा है, वह क्या उसी गलती दोहराना नहीं है जो प्रशासन ने किया? जिस तरह से इसे एक व्यापक जातिगत आंदोलन का रूप देने की कोशिश की जा रही है, वह क्या लाश के ऊपर राजनीति करना नहीं है? जिस तरह का दुष्प्रचार किया जा रहा है, क्या वह जोड़ने की बजाय और तोड़ने का काम नहीं करेगा? कुछ दिन और बीते, फिर जेएनयू की घटना हुई। कुछ छात्रों ने कुछ बयान दिए या नारे लगाये जो कुछ लोगों को आपत्तिजनक लगे। मामले औपचारिक शिकायत होनी चाहिए थी, स्वतंत्र जाँच होनी चाहिए थी और फिर न्यायोचित फ़ैसला सुनाया जाना था। पर सब्र किसे है यहाँ। राजनीतिक दल, मीडिया और आम लोग, सब ने अपना अपना पक्ष पकड़ा और लग गए। अभी कुछ पहलू पेश करता हूँ, देखिएगा किस तरह से लोग अपनी अपनी सहूलियत के हिसाब से इसे अलग अलग रंग दे रहे।
पहला पहलू - एक वर्ग इसे ब्राह्मणवाद की साजिश बताता है। नीचे एक लेख प्रस्तुत है जो काफी प्रचारित किया जा रहा है फेसबुक पर। साथ में कुछ तस्वीरें भी घूम रहीं।
मैं ये दावा नहीं कर रहा कि मैं मामले की तह तक गया हूँ और जानता हूँ कि हक़ीकत क्या है। लेकिन इतना अवश्य समझता हूँ कि यह खेल रोहित के मुद्दे को दबाने की साजिश तो नहीं है। 'एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट' पढ़ी है मैंने। जातिवाद एक बहुत जटिल समस्या है हमारे समाज की और इसे मिटाने की सख्त जरुरत है अगर हमें देश को विकास के मार्ग पर आगे ले जाना है। परन्तु इसका मतलब ये तो नहीं कि हर घटना पर यही रंग चढ़ाया जाए?
दूसरा पहलू - कुछ लोगों की नजर में ये एक बहुत बड़े घोटाले को छिपाने की साजिश है। नीचे एक तस्वीर है जो बहुत जोर शोर से वितरित हो रही है फेसबुक पर।
ब्राह्मणवादी मीडिया की आपसी लड़ाई में कुछ मासूम बहुजन यूं खुश हो रहे हैं मानों इस तरह मीडिया, यूनिवर्सिटी, न्यायपालिका, कॉर्पोरेट, ब्यूरोक्रेसी, एकेडेमिक्स और बाकी तमाम क्षेत्रों में ब्राह्मणवाद हार जाएगा.
उन मासूमों को पता भी नहीं चल रहा कि मीडिया के पक्ष और विपक्ष दोनों ने मिलकर जेएनयू को खेल का मैदान बना दिया है. रोहित वेमुला कहां है ब्राह्मणवादी मीडिया के इस पक्ष और विपक्ष में?
मीडिया के पक्ष विपक्ष के षड्यंत्रों के बावजूद, रोहित वेमुला इसलिए जिंदा है, क्योंकि सोशल मीडिया पर लाखों सचेत लोगों ने उसे जरूरी मुद्दा मानकर उसे ताकत दी है. यही आपकी ताकत है. इसे बनाए रखिए.
वरना जरा सोचिए कि बाबा साहेब के शब्दों में, ब्राह्मणवाद की बाईं भुजा और दाईं भुजा लड़ रही है, तो उससे आप कैसे जीत जाएंगे (पढ़िए एनिहिलेशन ऑफ कास्ट) ? आप मीडिया में जब हैं ही नहीं, तो वहां की लड़ाई में आप कैसे जीत जाएंगे? आपकी हैसियत ताली बजाने की है.
आप स्टेडियम के बाहर की स्क्रीन पर तमाशा देख रहे हैं. खेल आपका नहीं है. आपकी लड़ाई कोई और क्यों लड़ देगा? अपना खेल खड़ा कीजिए....अपना खेल बड़ा कीजिए.
इस मसले पर तो मैं कुछ नहीं बोल सकता। कोशिश की मैंने तथ्य पता करने की पर कुछ मिला नहीं जो इसकी पुष्टि या खंडन कर सके।
तीसरा पहलू - कुछ लोगों को ये भी लगता है कि इस सब की वजह है मोदी जी का अच्छा काम। एक तस्वीर नीचे पेश है, पर ध्यान रहे, ये अकेली तस्वीर नहीं है। इस तरह की कई तसवीरें वितरण में हैं।
"इनका इलाज करना होगा जेलों की लौह सलाखों में,'गंगाजल' का तेजाब डालना होगा इनकी आँखों में.!
"दिल्ली को सावरकर जी की भाषा में कहना होगा,हिंदुस्तान में हिन्दुस्तानी बनकर ही रहना होगा,इनके आगे छप्पन इंची सीना लेकर तन जाओ,मोदी जी फिर 2002 वाले मोदी बन जाओ.!"
दूसरी कविता न सिर्फ हमारे प्रधानमंत्री का अपमान करती है बल्कि न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय पर भी सवाल उठाती है। अति उत्साह में लोग अति कर जाते हैं। इसी तरह के अति उत्साह का नतीज़ा है नीचे प्रस्तुत तस्वीर।
बिना जांच पड़ताल किये फैसला सुना देना बहुत आसान होता है, पर उससे पहले ये सोचना जरुरी नहीं समझा गया कि इससे जे एन यू के छात्रों पर क्या असर पड़ेगा। मैं इसलिए ये समझ सकता हूँ कि जब भी आई आई टी या आई आई टी रूड़की के बारे में कुछ भी नकारात्मक ख़बर या टिप्पणी पढ़ने को मिलती है तो बहुत बुरा लगता है।
चौथा पहलू - धर्म का रंग तो चढ़ना ही है हर घटना पर। तो एक रंग ये भी देखने को मिला। ये जिस लिपि और भाषा में मिला वैसा ही उद्धृत कर रहा हूँ। इस पर कुछ टिप्पणी भी नहीं करूँगा। आप खुद पढ़िए और समझने की कोशिश कीजिये।
Ghurbat mein mehnatkashi, hai khauf-o-gham vatan mein.
Jaano kahan ke ham hain dil hai kahan hamara.
Mazhab hi ban gaya hai ab bair ki buniyad.
Kabhi Hindvi the ham watan tha hindositan hamara.
aye ab, raud, ganga, voh din hai yaad tujhko
utara tere kinare, jab karvan hamara
Jabse takhtnashin hai khaki mijaaz shahid
Aangan sikud gaya, izaafe mein hai qabristan hamara.
Jis khwab ko likha tha, vatan ye wo nahi iqbal
Sarmayedaaron ki jaageer hai aashiyan hamara.
तो कुल मिलाकर बात ये है कि घटना चाहे जे एन यू की हो या दादरी की या आरक्षण की, राजनीतिक पार्टियाँ हमें बाँटने का काम करती रहेगी, मीडिया टीआरपी के लिए मुद्दों को विवादास्पद बना कर उछालती रहेंगी और सोशल मीडिया पर अफवाहों का बाज़ार गर्म रहेगा। तो मेरी आपसे बस इतनी सी गुज़ारिश है कि जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से अफ़वाहें ना फैलाएं ना फैलने दें, उन लोगों को पहचानें जो बाँटने की कोशिश कर रहे हैं, उनका बहिष्कार करें और सकारात्मक सोच को आगे बढ़ाएँ। ये इसलिए जरूरी है कि देश के हालात से सबसे ज्यादा हम और आप जैसे आम लोग प्रभावित होते हैं।
कभी कभी लगता है पत्थर पे सर फोड़ रहा हूँ, पर उम्मीद है शायद पत्थर कमजोर निकले!
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