याद है,
वो पहली मंजिल,
जहाँ सचेत किया था,
रास्ते ने मुझे,
के ऐ मुसाफिर,
थमना नहीं,
कई मुकाम बाकी है,
जीतने के लिए,
मुकम्मल जहान बाकी है...
चाँद सूरज गिने तो क्या,
तारों से भरा,
ये आसमान बाकी है...
फिर क्या,
चलते ही जा रहे,
उस राह पर हम,
जिसपर कोई भी,
आखिरी मंजिल नहीं...
हैं तो बस चंद पड़ाव,
रास्ता बताते हुए,
अगले पड़ाव का...
12 comments:
सुन्दर चिन्तनमयी कविता.
अम्बुज,
तुम्हारी कई कविताओं को पढ़ चुके हैं हम.....
और बहुतों को सराहा भी है...लेकिन यह कविता एक पूर्ण कविता है....इस कविता को पढ़ कर में लगा कि शब्द, भाव, लक्ष्य सब कुछ अपनी पूर्णता पर है...
तुम्हारे ब्लॉग की शान बन गयी यह कविता...
बधाई हो तुम्हें....
जिस राह की कोई मंजिल नहीं ...उस पर चलते रहना भी कम नहीं ...
हम जो चलने लगे ...चलने लगे है रास्ते ...ना मंजिल का पता हो ....तो क्या ...!!
अच्छी लगी रचना।
nice one buddy...
chalte to sab apane raasto pe hai dost, magar
hamraahi ka saath use jindagi bana deta hai.
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
dhanyawad ada di.. kal kaha tha maine mahfooz bhai se ki kuch alag sa hai aur main post karne se dar raha tha.. par finally maine kar diya post...
ankush, mere bhai, tum bilkul wahan pahunche jahan main isko likh kar pahuncha tha...
के ऐ मुसाफिर,
थमना नहीं,
कई मुकाम बाकी है,
जीतने के लिए,
मुकम्मल जहान बाकी है...
चाँद सूरज गिने तो क्या,
तारों से भरा,
ये आसमान बाकी है...
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है बधाई
बढ़े चलो बढ़े चलो....।
bahut hi umda Ambuj
आखिरी मंजिल नहीं...
हैं तो बस चंद पड़ाव,
रास्ता बताते हुए,
अगले पड़ाव का...
वाह!
kitni sundar rachna ! Kehne ko shabd nahi ...
Likhte rahen .
Aabhar .
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