Tuesday, August 04, 2015

खिड़की खुलती थी जिधर मेरी, एक दीवार बन गयी है,
चाँद को मैं और मुझे अब चाँद नहीं मिलता

ज़माना पूछता रहता है, अब क्यों नहीं लिखते
है कागज़ भी कलम भी, अब कोई मक़सद नहीं दिखता

सबा भी ढूंढने आई सुख़नवर कोई, कह दिया मैंने,
मर गया ग़ालिब, इधर अब कोई नहीं रहता 

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