Saturday, October 27, 2018

कहानी confidence की

हुआ कुछ यूँ कि कल रात एक कार्यक्रम से देर रात लौट रहा था | एक सहकर्मी छोड़कर जा रहे हैं तो उनका विदाई समारोह था जो देर रात तक चल रहा था | रात के क़रीब एक बजे मुझे ज्यादा नींद आने लगी तो मैंने अलविदा कह कर अनुमति ली और वापस निकल पड़ा | कुछ मित्र ज़िद करने लगे कि घर तक छोड़ देंगें परन्तु मैंने मना कर दिया और पैदल चलने का फ़ैसला लिया | दूरी ज्यादा नहीं है, यही कुछ एक से डेढ़ किलोमीटर होगा | पर लोग आश्चर्यचकित कि इतनी रात गए अकेले पैदल, डर नहीं लगता? वहाँ तो मैंने बात को हँसी में टालने को बोल दिया कि बिहार से हूँ, इन सब से अब डर नहीं लगता ! पर वास्तव में कहानी कुछ और है | डर  सचमुच नहीं लगता पर वजह बिहार नहीं है | वजह एक वाक़या है जो कल रात फ़िर याद आया और हर उस बार याद आता है जब इस तरह की कोई बात निकल पड़ती है |

बात है २०१० की जब मैं रूड़की में था | हमारी परीक्षा चल रही थी | तो हमारे समय पर नियम ये था कि फ़ोन को बंद या silent करके invigilator के पास छोड़ना होता था | तो मैंने भी अपना फ़ोन उधर रखा और अपने स्थान पर जाकर बैठ गया | परीक्षा एक घंटे की होती थी | कुछ १५-२० मिनट हुए होंगे कि फ़ोन बजने की आवाज़ आयी | invigilator साहब ने अपने टेबल पर देखा, उनमें से कोई भी नहीं बज रहा था | फिर वो पूरे कमरे में एक बार घूमे, पर पता नहीं चला कि आवाज़ कहाँ से आ रही | फ़िर आवाज़ बंद हो गयी | कुछ ही देर हुए होंगे कि फ़िर से आवाज़ आने लगी | फ़िर invigilator साहब पूरे कमरे में घूमे, और इस बार तो बाहर भी घूम आये पर पता नहीं चला कि आवाज़ आ कहाँ से रही है | मैं भी सोच रहा था कि कौन बेवक़ूफ़ मोबाइल बंद करना भूल गया है और ये invigilator आवाज़ समझ के पता नहीं कर पा रहा कि कहाँ से आवाज़ आ रही? कुछ समय बाद मेरे सारे सवाल लिखे हो गए और मैं जाने के लिए उठा | तब जा कर मुझे एहसास हुआ कि मेरे जेब में ही तो मोबाइल फ़ोन था जो बज रहा था |

उस ज़माने में मोबाइल फ़ोन घर घर आ तो चुके थे पर कॉल दर काफ़ी ज्यादा हुआ करते थे आज की तुलना में | ऐसे में जब टाटा डोकोमो ने नयी सेवा शुरू की जिसमे unlimited calls और messages कर सकते थे, मैंने भी एक और सिम लेने का फ़ैसला लिया | अभी मेरे पास दो फ़ोन थे, पर परीक्षा के एक दिन पहले यूँ हुआ कि मेरे पहले वाले फ़ोन में कुछ ख़राबी आ गयी और सिर्फ डोकोमो वाला फ़ोन काम कर रहा था | और परीक्षा वाले दिन मैंने डोकोमो वाला फ़ोन तो निकाल कर बाहर रख दिया था पर एयरटेल वाला जेब में ही रह गया था | अब चूँकि वो फ़ोन चालू भी नहीं था तो जब फ़ोन बज रहा था तो भी कभी मुझे ये लगा नहीं कि मेरा फ़ोन ही बज रहा है | तो मैं पूरे confidence के साथ अपना काम कर रहा हूँ, बल्कि जब फ़ोन बज रहा था तो इधर उधर देख भी रहा हूँ कि किस बेवक़ूफ़ का बज रहा है ! उस दिन कोई भी ये समझ नहीं पाया कि किसका फ़ोन बजा था | हुआ ये था कि फ़ोन में जो गड़बड़ी थी वो एयरटेल वालों ने सही कर दिया था और मेरे घर से माँ ने यूँ ही कॉल कर दिया था | जब एक बार में नहीं  उठाया तो चिंतावश माँ ने दो बार और कर दिया ! उसके बाद दो बार दूसरे फ़ोन पर भी कर दिया था | और तो और भाई को भी किया और फ़िर दो कॉल भाई ने भी लगा दिए | बाहर निकल के जब मैंने कॉल किया तो पता चला कि कोई बात तो नहीं है बस कॉल नहीं उठाया तो चिंता होने लगी !

वहाँ से निकलते ही सबसे पहले तो मेरे दिमाग में यही आया कि आज तो बाल बाल बचे ! अगर invigilator को पता चल गया होता तो नियम तोड़ने के लिए कुछ भी सज़ा दे सकते थे, यहाँ तक कि निष्कासित भी कर सकते थे, जबकि मैं फ़ोन इस्तेमाल भी नहीं कर रहा | नियम नियम होते हैं, उन्हें अक्सर अक्षरशः लागू किया जाता है, बिना उसकी भावना देखे हुए | फ़ोन न रखने का नियम इसलिए बना कि कोई उससे मदद ना ले ले, पर नियम बन गया तो अगर आप मदद नहीं भी ले रहे और आपके पास फ़ोन पाया गया तो सज़ा तो बराबर मिलेगी ! बाद में मैंने अन्य पहलुओं पर सोचा तो एक महत्वपूर्ण सीख मिली | confidence बहुत बड़ी चीज़ है | अगर आप confidently कुछ कर रहे तो लोगों को लगता है कि इसे पता है, सही ही कर रहा होगा |

उसके कुछ ही दिनों  बाद एक और घटना हुई | मैं रात को कैंटीन  जा रहा था तो रास्ते में एक कुत्ता खड़ा था जो भौंकने लगा | मेरी  आकस्मिक प्रतिक्रिया थी वापस जाने की, पर फ़िर मैंने कुछ और आज़माया - मैं सीधा आगे बढ़ा जैसे कि मैंने कुत्ते को देखा ही नहीं | वो फ़िर भौंका और इस बार मैंने उसकी ओर घूरा | यक़ीन मानिये, कुत्ता वापस चला गया | उस दिन मुझे पता चला कि इंसान ही नहीं, जानवर भी confidence की भाषा समझते हैं | उसके बाद से मुझे कभी किसी चीज़, इंसान या जानवर  से डर नहीं लगा है |

ग़ालिब साहब का एक शेर है ...
मत पूछ कि क्या हाल था मेरा तेरे पीछे,
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे। 

Sunday, February 21, 2016

JNU तेरे कितने रंग

पिछले कुछ दिनों से जो चल रहा है देश में, देख कर बड़ी तक़लीफ़ होती है। हर छोटी बड़ी घटना को देशव्यापी आंदोलन बनाने की कोशिश की जाती है। ये चल रहा है, 'मीडिआ' की बदौलत चल रहा है और देश को काफ़ी नुक़सान पहुंचा रहा है। ये भी एक चलन हो गया है कि कोई ऐसा मुद्दा खोजो जिससे बहुत सारे लोगों का फायदा जुड़ा हुआ हो, मुद्दे को उठाओ, 'सोशल मीडिया' और 'पारम्परिक मीडिया' का इस्तेमाल करो, भीड़ इकठ्ठा करो और फिर जिसे चाहो उसे धमकाओ। डरने की बात नहीं है क्योंकि हमेशा एक पार्टी तो आपके पक्ष में रहेगी ही। मैं किसी पार्टी को अच्छा या बुरा नहीं कह रहा। पर ये तय है कि अगर आप सत्ता पक्ष के ख़िलाफ़ हैं तो विपक्ष खुद-ब-खुद आपके साथ खड़ा हो जायेगा। चाहे जो भी सत्ता और विपक्ष में रहे।

याद कीजिये पटेल आरक्षण आंदोलन। शुरुआत हुई गुजरात के एक हिस्से से। उनकी मांग कितनी जायज़ है, ये एक अलग बहस का मुद्दा है, वो फिर कभी। फिलहाल मुद्दा ये है कि किस तरह एक इंसान जिसका कल तक कोई औचित्य नहीं था, आज एक पूरे समुदाय का मसीहा बन गया। मेरे फेसबुक मित्रों में गुट बन चुके थे। लोग या तो साथ थे या खिलाफ थे। फिर हुआ दादरी काण्ड। होना ये चाहिए था कि एक दुर्भाग्यपूर्ण हादसे की निंदा की जाये और माहौल को सुधारने की कोशिश की जाए। पर हुआ क्या? दो पक्ष बन गए हमेशा की तरह, तलवारें लिए तैयार। देशव्यापी आंदोलन शुरू हो गए, विश्वविद्यालयों में कार्यक्रम हुए, लोगों ने सम्मान लौटाए और टीवी चर्चाओं में जमकर वक़्त बर्बाद किया गया। अंत में नतीज़ा हालाँकि कुछ नहीं निकला। तब तक लोग लड़ते रहे जब तक कोई नया किस्सा नहीं आया और जैसे ही नया किस्सा आ गया, इस किस्से को किसी धारावाहिक का पिछला भाग समझ कर लोग आगे बढ़ गए। एक नया किस्सा आया - रोहित का। उसपर कुछ आरोप लगाये गए थे, विश्वविद्यालय प्रशासन ने बिना गंभीर जाँच किये एक फैसला सुना दिया और रोहित ने संघर्ष करने की बजाय दम तोड़ना आसान समझा। मीडिया और राजनीतिक दलों के लिए बहुत आसान और फायदेमंद है एक व्यक्तिविशेष के संघर्ष को पूरे समुदाय का संघर्ष बताना, खासकर तब जब वास्तविकता में भी कुछ इतिहास रहा हो उस संघर्ष का। अगर आगे चलकर यह साबित होता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने जो कदम उठाये थे वो रोहित की जाति से प्रेरित थे, तो यह निश्चय ही निंदा का विषय होगा और दोषी लोगों के खिलाफ कारर्वाई होनी चाहिए। किन्तु ज़रा सोचिये कि जिस तरह से बिना जाँच के फैसला सुनाया जा रहा है, वह क्या उसी गलती दोहराना नहीं है जो प्रशासन ने किया? जिस तरह से इसे एक व्यापक जातिगत आंदोलन का रूप देने की कोशिश की जा रही है, वह क्या लाश के ऊपर राजनीति करना नहीं है? जिस तरह का दुष्प्रचार किया जा रहा है, क्या वह जोड़ने की बजाय और तोड़ने का काम नहीं करेगा? कुछ दिन और बीते, फिर जेएनयू की घटना हुई। कुछ छात्रों ने कुछ बयान दिए या नारे लगाये जो कुछ लोगों को आपत्तिजनक लगे। मामले औपचारिक शिकायत होनी चाहिए थी, स्वतंत्र जाँच होनी चाहिए थी और फिर न्यायोचित फ़ैसला सुनाया जाना था। पर सब्र किसे है यहाँ। राजनीतिक दल, मीडिया और आम लोग, सब ने अपना अपना पक्ष पकड़ा और लग गए। अभी कुछ पहलू पेश करता हूँ, देखिएगा किस तरह से लोग अपनी अपनी सहूलियत के हिसाब से इसे अलग अलग रंग दे रहे। 

पहला पहलू - एक वर्ग इसे ब्राह्मणवाद की साजिश बताता है। नीचे एक लेख प्रस्तुत है जो काफी प्रचारित किया जा रहा है फेसबुक पर। साथ में कुछ तस्वीरें भी घूम रहीं।
ब्राह्मणवादी मीडिया की आपसी लड़ाई में कुछ मासूम बहुजन यूं खुश हो रहे हैं मानों इस तरह मीडिया, यूनिवर्सिटी, न्यायपालिका, कॉर्पोरेट, ब्यूरोक्रेसी, एकेडेमिक्स और बाकी तमाम क्षेत्रों में ब्राह्मणवाद हार जाएगा.
उन मासूमों को पता भी नहीं चल रहा कि मीडिया के पक्ष और विपक्ष दोनों ने मिलकर जेएनयू को खेल का मैदान बना दिया है. रोहित वेमुला कहां है ब्राह्मणवादी मीडिया के इस पक्ष और विपक्ष में? 
मीडिया के पक्ष विपक्ष के षड्यंत्रों के बावजूद, रोहित वेमुला इसलिए जिंदा है, क्योंकि सोशल मीडिया पर लाखों सचेत लोगों ने उसे जरूरी मुद्दा मानकर उसे ताकत दी है. यही आपकी ताकत है. इसे बनाए रखिए. 
वरना जरा सोचिए कि बाबा साहेब के शब्दों में, ब्राह्मणवाद की बाईं भुजा और दाईं भुजा लड़ रही है, तो उससे आप कैसे जीत जाएंगे (पढ़िए एनिहिलेशन ऑफ कास्ट) ? आप मीडिया में जब हैं ही नहीं, तो वहां की लड़ाई में आप कैसे जीत जाएंगे? आपकी हैसियत ताली बजाने की है. 
आप स्टेडियम के बाहर की स्क्रीन पर तमाशा देख रहे हैं. खेल आपका नहीं है. आपकी लड़ाई कोई और क्यों लड़ देगा? अपना खेल खड़ा कीजिए....अपना खेल बड़ा कीजिए.



मैं ये दावा नहीं कर रहा कि मैं मामले की तह तक गया हूँ और जानता हूँ कि हक़ीकत क्या है। लेकिन इतना अवश्य समझता हूँ कि यह खेल रोहित के मुद्दे को दबाने की साजिश तो नहीं है। 'एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट' पढ़ी है मैंने। जातिवाद एक बहुत जटिल समस्या है हमारे समाज की और इसे मिटाने की सख्त जरुरत है अगर हमें देश को विकास के मार्ग पर आगे ले जाना है। परन्तु इसका मतलब ये तो नहीं कि हर घटना पर यही रंग चढ़ाया जाए?

दूसरा पहलू - कुछ लोगों की नजर में ये एक बहुत बड़े घोटाले को छिपाने की साजिश है। नीचे एक तस्वीर है जो बहुत जोर शोर से वितरित हो रही है फेसबुक पर।


इस मसले पर तो मैं कुछ नहीं बोल सकता। कोशिश की मैंने तथ्य पता करने की पर कुछ मिला नहीं जो इसकी पुष्टि या खंडन कर सके। 

तीसरा पहलू - कुछ लोगों को ये भी लगता है कि इस सब की वजह है मोदी जी का अच्छा काम। एक तस्वीर नीचे पेश है, पर ध्यान रहे, ये अकेली तस्वीर नहीं है। इस तरह की कई तसवीरें वितरण में हैं। 


मैं इस बात से कतई इनकार नहीं कर रहा कि विपक्षी पार्टियाँ सरकार के अच्छे काम से ध्यान हटाने के लिए इस तरह के मुद्दों को हवा दे सकती है। पर कुछ मित्र इसे और आगे ले कर चले जाते हैं। नीचे दो कविताओं के अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मुझे फेसबुक पर मिले।
"इनका इलाज करना होगा जेलों की लौह सलाखों में,'गंगाजल' का तेजाब डालना होगा इनकी आँखों में.!
"दिल्ली को सावरकर जी की भाषा में कहना होगा,हिंदुस्तान में हिन्दुस्तानी बनकर ही रहना होगा,इनके आगे छप्पन इंची सीना लेकर तन जाओ,मोदी जी फिर 2002 वाले मोदी बन जाओ.!"
पहली कविता दर्शाती है कि कानून व्यवस्था से कुछ लोगों का विश्वास उठ गया है और लोग एक अलग तरह के न्याय की बात करने लगे हैं जो कि भारत के संविधान को शोभा नहीं देता।
दूसरी कविता न सिर्फ हमारे प्रधानमंत्री का अपमान करती है बल्कि न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय पर भी सवाल उठाती है। अति उत्साह में लोग अति कर जाते हैं। इसी तरह के अति उत्साह का नतीज़ा है नीचे प्रस्तुत तस्वीर।

बिना जांच पड़ताल किये फैसला सुना देना बहुत आसान होता है, पर उससे पहले ये सोचना जरुरी नहीं समझा गया कि इससे जे एन यू के छात्रों पर क्या असर पड़ेगा। मैं इसलिए ये समझ सकता हूँ कि जब भी आई आई टी या आई आई टी रूड़की के बारे में कुछ भी नकारात्मक ख़बर या टिप्पणी पढ़ने को मिलती है तो बहुत बुरा लगता है। 

चौथा पहलू - धर्म का रंग तो चढ़ना ही है हर घटना पर। तो एक रंग ये भी देखने को मिला। ये जिस लिपि और भाषा में मिला वैसा ही उद्धृत कर रहा हूँ। इस पर कुछ टिप्पणी भी नहीं करूँगा। आप खुद पढ़िए और समझने की कोशिश कीजिये।   
Ghurbat mein mehnatkashi, hai khauf-o-gham vatan mein.
Jaano kahan ke ham hain dil hai kahan hamara.
Mazhab hi ban gaya hai ab bair ki buniyad.
Kabhi Hindvi the ham watan tha hindositan hamara.
aye ab, raud, ganga, voh din hai yaad tujhko
utara tere kinare, jab karvan hamara
Jabse takhtnashin hai khaki mijaaz shahid
Aangan sikud gaya, izaafe mein hai qabristan hamara.
Jis khwab ko likha tha, vatan ye wo nahi iqbal
Sarmayedaaron ki jaageer hai aashiyan hamara.

तो कुल मिलाकर बात ये है कि घटना चाहे जे एन यू की हो या दादरी की या आरक्षण की, राजनीतिक पार्टियाँ हमें बाँटने का काम करती रहेगी, मीडिया टीआरपी के लिए मुद्दों को विवादास्पद बना कर उछालती रहेंगी और सोशल मीडिया पर अफवाहों का बाज़ार गर्म रहेगा। तो मेरी आपसे बस इतनी सी गुज़ारिश है कि जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से अफ़वाहें ना फैलाएं ना फैलने दें, उन लोगों को पहचानें जो बाँटने की कोशिश कर रहे हैं, उनका बहिष्कार करें और सकारात्मक सोच को आगे बढ़ाएँ। ये इसलिए जरूरी है कि देश के हालात से सबसे ज्यादा हम और आप जैसे आम लोग प्रभावित होते हैं।

कभी कभी लगता है पत्थर पे सर फोड़ रहा हूँ, पर उम्मीद है शायद पत्थर कमजोर निकले!

Wednesday, February 17, 2016

बिन वाद, विवाद

हो गयी है पीड़ पर्वत सी, पिघलनी चाहिए 
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए... 

जी नहीं, आप गलत समझ रहे।  मैं 'भक्त' नहीं हूँ।  अरे आप भी गलत समझ रहे, मैं 'आपिया' भी नहीं हूँ।  और भाईसाब आप तो सोचना भी मत, 'कांग्रेसी' तो बिल्कुल नहीं।  तो फिर आप सोच रहे होंगे कि  मैं क्या हूँ? अजी  क़सूर आपका नहीं, माहौल का है।  न जाने क्या वक़्त आया है कि सब किसी न किसी तरफ हैं और अगर आप मेरी तरफ नहीं तो दूसरी तरफ के मान लिए जाते हैं।  अब आप सोच रहे होंगे कि ये अचानक क्या हो गया इसे।  बता दें आपको कि ये अचानक नहीं हुआ है।  लगभग तीन साल से तो चल ही रहा है।   हमेशा मैं सोचता हूँ कि ये चुनावी मौसम है, निकल जायेगा।  पर ये चुनाव भी तो ख़त्म नहीं होते ना।  आज यहाँ तो कल वहाँ।  इसी बहाने रोटी सिकती रहती है।  तो बात दरअसल ये है की राजनीतिक मामलों में पक्षीकरण बढ़ता जा रहा है और स्वस्थ चर्चा विलुप्त होती जा रही है।  'ब्रांडिंग' चल रही है सबकी। सब अपनी अपनी विचारधारा बेचने में लगे हैं।  'सोशल मीडिया' ने भी जी भर कर आग लगाने का काम किया है।  जिसके मन में जो आया कह या लिख दिया, चंद मिनटों में साथ और ख़िलाफ़ दोनों ही तरफ भीड़ इकठ्ठा हो गयी।  कहने वाला तो पतली गली से निकल लिया, बाकी लोग झगड़ते रह गए।  

शुरुआत हुई थी दिल्ली चुनाव के समय।  तीन में से कम से कम दो पक्ष तो स्पष्ट रूप से समझ चुके थे 'ब्रांडिंग' और 'सोशल मीडिया' के महत्त्व को।  'फेसबुक' और 'ट्विटर' पर सरकार बनायी जा रही थी।  जो कभी वोट देने नहीं गए और ना ही जाने वाले थे, वो विशेषज्ञ बने पड़े थे।  उस दौर में मैं सोचता था की शायद कुछ बदलाव आ रहा है देश की राजनीति में।  एक नया आदमी आया है जो परिवर्तन की बात करता है, युवा को जोड़ने की बात करता है, भ्रष्टाचार मिटाने की बात करता है।  इतना कुछ नहीं तो थोड़ा बहुत भी अगर किया और लोगों ने उसका साथ दिया तो देखा देखी और राजनीतिक दल भी थोड़ा सुधरेंगें। और फिर धीरे धीरे देश की राजनीति कुछ हद तक सही दिशा में आगे बढ़ेगी।  हमारे 'डिनर टेबल' पर ऐसे ही चर्चाएँ हुआ करती थी और लोगों ने पहले मुझे 'आपिया' और फिर 'आपटार्ड' घोषित कर दिया।  ख़ैर, जैसा कि मुझे अनुमान था, केजरीवाल मुख्यमंत्री बने।  दुनिया बदल देंगे ऐसी तो उम्मीद भी नहीं थी, लेकिन जितनी उम्मीद थी उतना भी नहीं हुआ।  बाकी लोगों की ही तरह ये भी बहानो तथा आरोप प्रत्यारोप में उलझ गए।  काम 'बैकफुट' पर जा चुका था।  मेरा नजरिया बदला और साथ ही मेरे दोस्त भी।  जैसे ही मेरे मुंह से केजरीवाल के कुछ कदमों की आलोचना शुरू हुई, मैं मोदी भक्त घोषित कर दिया गया जबकि भारतीय जनता पार्टी के कुछ क़दमों की आलोचना बंद नहीं की थी मैंने।  बस इतना ही कहा था की उपलब्ध विकल्पों में फिलहाल सबसे बेहतर यही है।  खैर, खाई बढ़ती गयी और तटस्थ रहने वाले या सबको समान दृष्टि से देखने वालो की तादाद कम होती गयी।  आम चुनाव हुए, फिर देश भर में कुछ कुछ छिट पुट घटनाएँ होती रहीं, और फिर बिहार चुनाव का वक़्त आया।  आरोप प्रत्यारोप की राजनीति चरम पर पहुँच गयी।  मैंने कहा कि नीतीश ने कुछ काम तो जरूर किया था, छवि बदलने की कोशिश की बिहार की, अपराध, खास कर फिरौती के लिए अपहरण, पर अंकुश लगे और भ्रष्टाचार भी कम हुआ। तो लोग कहने लगे कि फिर से जंगल राज आएगा तुम जैसों की वजह से।  जबकि मैंने हमेशा लालू जी का विरोध ही किया।  और जब लालू जी के ख़िलाफ़ बोला तो लोग बोलने लगे कि वो 'सामाजिक न्याय' के प्रतीक हैं और जो उन्होंने किया वो जरुरी था हजारों वर्षों के ब्राह्मणवाद को ख़त्म करने के लिए।  कुछ दोस्त तो मेरे लालू विरोध को मेरी जाति और धर्म से भी जोड़ने लगे।  और इन सब के बाद जब नतीज़े आये और लालू नीतीश गठजोड़ के पक्ष में आये तो भाजपा वाले मित्रों ने इसे हम जैसे लोगों की गलती बताया।  हाँ, उन लोगों ने भी जो खुद भी वोट डालने नहीं गए।  

अब आप ये सोच रहे होंगे कि इतनी लम्बी कहानी क्यों सुनाई और ये सब जब इतने वक़्त से चल रहा तो अब क्यों? तो वो इसलिए कि आजकल कुछ ऐसा चल रहा है जिसमें सभी पक्षों ने अपनी अपनी हदें पार कर ली।  सब अपने अपने 'पार्टी स्टैंड' के साथ अपने बयान और विचार बदलने लगे।  जब पार्टी का आधिकारिक 'ट्वीट' आया तो प्रतिक्रिया अलग और फिर जब उपाध्यक्ष भाषण दे कर आये तो प्रतिक्रिया कुछ और।  अगर आप छात्र नेताओं के बयान भी देखें तो एकरूपता नहीं है उनमें।  एक बार वो जातिवाद मिटाने की बात करते हैं तो अगले ही वाक्य में नौकरी में जाति के आधार पर आरक्षण मांगते हैं।  कभी संविधान में पूरी श्रद्धा की बात करते हैं तो कभी संविधानिक प्रक्रियाओं को नहीं मानने की बात करते हैं।  मूल सवाल 'वैचारिक स्वतंत्रता' एवं इसकी सीमाओं की है।  चर्चा इस बात पर होनी चाहिए थी कि वैचारिक स्वतंत्रता पर जो सीमाएं संविधान में लगायी गयी हैं, वो क्यों हैं, उनका क्या औचित्य है और उन्हें हटाने या बदलने से देश पर क्या असर होगा।  पर इतनी फुर्सत किसे है! लोगों ने तो अपने अपने फैसले खुद सुना दिए और चल पड़े अपनी अपनी बंदूकें निकाल कर।  देश जाए भाड़ में, तर्क जाए भाड़ में, हमें तो राजनीतिक रोटियाँ सेंकनी हैं बस।  मैंने सोचा कि ज़रा पता लगाऊँ कि आखिर वजह क्या है।  अचानक क्यों हो रहा ये सब एक उच्च स्तर के शिक्षण संस्थान में? पता चला कि कुछ ही दिनों में उधर भी चुनाव हैं ! वजह तो समझ में आ गयी और एक बार को ये भी लगा की चलो कुछ दिन झेल लेते हैं फिर चुनाव हो जाएँ तो खेल ख़त्म।  लेकिन फिर लगा कि बहुत समय से ऐसा ही चल रहा और ये चुनाव तो कभी ख़त्म होने नहीं वाले कभी भारत में।  चुनाव प्रक्रिया भी बहुत दिनों से एक सुधार की मोहताज़ है।  

अब मुद्दे के अंदर के मुद्दे की थोड़ी बात करते हैं।  कुछ सवाल उठाये गए।  ये समझना जरुरी है कि क्यों उठे और अभी क्यों उठे।  अब अगर किसी को न्यायालय द्वारा दी गयी सज़ा पर विरोध हो रहा है तो उसका नज़रिया समझना भी आवश्यक है।  पहले तो ये जानना जरुरी है कि विरोध इसलिए है कि उसे मुज़रिम नहीं मानते या विरोध सजा-ए-मौत का है।  अगर उसे मुज़रिम नहीं मान रहे तो फिर आज विरोध क्यों ? और फिर नारे भारत विरोधी क्यों ? उसके 'ख़ून' के 'बदले' की बात क्यों? और जहाँ तक मुझे याद है, ज़ुर्म साबित होने और सजा दिए जाने में काफी वक़्त का फ़ासला था।  तो फिर तब क्यों नहीं हुआ ऐसा विरोध? अगर विरोध सज़ा-ए-मौत का है तो कश्मीर का रंग क्यों, सिर्फ दो ही नाम क्यों? सवाल तर्क़ का है, बात सबको कसौटी पर कसने की है, लेकिन नतीज़ा? मुझे भक्त घोषित कर देंगें।  जबकि मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' एक सीमा के अंदर है या असीमित ?  झकझोरियेगा ज़रा खुद को और कुछ ज़वाब मिले तो बताइयेगा ज़रूर।

"सुना है तेरी यूनिवर्सिटी में कुछ तनाव है?"
"हाँ, अगले महीने छात्र संघ चुनाव है.."

Wednesday, September 16, 2015

एक और मुलाक़ात

एक पुरानी डायरी टकरा गयी आज 
पलटा तो मानो वक़्त पलट दिया 
बिखर  बिखर गए थे सफ़हे,
अल्फ़ाज़ मगर सलामत थे सारे

चंद फूल थे, रख लिए हैं सँभाल कर 
कुछ सूखे पत्ते थे जो जला दिए
ये पत्तियाँ जो अब तक हरी हैं,
क्या करूँ इनका, कोई कुछ मशवरा दो 

Tuesday, August 04, 2015

खिड़की खुलती थी जिधर मेरी, एक दीवार बन गयी है,
चाँद को मैं और मुझे अब चाँद नहीं मिलता

ज़माना पूछता रहता है, अब क्यों नहीं लिखते
है कागज़ भी कलम भी, अब कोई मक़सद नहीं दिखता

सबा भी ढूंढने आई सुख़नवर कोई, कह दिया मैंने,
मर गया ग़ालिब, इधर अब कोई नहीं रहता