हुआ कुछ यूँ कि कल रात एक कार्यक्रम से देर रात लौट रहा था | एक सहकर्मी छोड़कर जा रहे हैं तो उनका विदाई समारोह था जो देर रात तक चल रहा था | रात के क़रीब एक बजे मुझे ज्यादा नींद आने लगी तो मैंने अलविदा कह कर अनुमति ली और वापस निकल पड़ा | कुछ मित्र ज़िद करने लगे कि घर तक छोड़ देंगें परन्तु मैंने मना कर दिया और पैदल चलने का फ़ैसला लिया | दूरी ज्यादा नहीं है, यही कुछ एक से डेढ़ किलोमीटर होगा | पर लोग आश्चर्यचकित कि इतनी रात गए अकेले पैदल, डर नहीं लगता? वहाँ तो मैंने बात को हँसी में टालने को बोल दिया कि बिहार से हूँ, इन सब से अब डर नहीं लगता ! पर वास्तव में कहानी कुछ और है | डर सचमुच नहीं लगता पर वजह बिहार नहीं है | वजह एक वाक़या है जो कल रात फ़िर याद आया और हर उस बार याद आता है जब इस तरह की कोई बात निकल पड़ती है |
बात है २०१० की जब मैं रूड़की में था | हमारी परीक्षा चल रही थी | तो हमारे समय पर नियम ये था कि फ़ोन को बंद या silent करके invigilator के पास छोड़ना होता था | तो मैंने भी अपना फ़ोन उधर रखा और अपने स्थान पर जाकर बैठ गया | परीक्षा एक घंटे की होती थी | कुछ १५-२० मिनट हुए होंगे कि फ़ोन बजने की आवाज़ आयी | invigilator साहब ने अपने टेबल पर देखा, उनमें से कोई भी नहीं बज रहा था | फिर वो पूरे कमरे में एक बार घूमे, पर पता नहीं चला कि आवाज़ कहाँ से आ रही | फ़िर आवाज़ बंद हो गयी | कुछ ही देर हुए होंगे कि फ़िर से आवाज़ आने लगी | फ़िर invigilator साहब पूरे कमरे में घूमे, और इस बार तो बाहर भी घूम आये पर पता नहीं चला कि आवाज़ आ कहाँ से रही है | मैं भी सोच रहा था कि कौन बेवक़ूफ़ मोबाइल बंद करना भूल गया है और ये invigilator आवाज़ समझ के पता नहीं कर पा रहा कि कहाँ से आवाज़ आ रही? कुछ समय बाद मेरे सारे सवाल लिखे हो गए और मैं जाने के लिए उठा | तब जा कर मुझे एहसास हुआ कि मेरे जेब में ही तो मोबाइल फ़ोन था जो बज रहा था |
उस ज़माने में मोबाइल फ़ोन घर घर आ तो चुके थे पर कॉल दर काफ़ी ज्यादा हुआ करते थे आज की तुलना में | ऐसे में जब टाटा डोकोमो ने नयी सेवा शुरू की जिसमे unlimited calls और messages कर सकते थे, मैंने भी एक और सिम लेने का फ़ैसला लिया | अभी मेरे पास दो फ़ोन थे, पर परीक्षा के एक दिन पहले यूँ हुआ कि मेरे पहले वाले फ़ोन में कुछ ख़राबी आ गयी और सिर्फ डोकोमो वाला फ़ोन काम कर रहा था | और परीक्षा वाले दिन मैंने डोकोमो वाला फ़ोन तो निकाल कर बाहर रख दिया था पर एयरटेल वाला जेब में ही रह गया था | अब चूँकि वो फ़ोन चालू भी नहीं था तो जब फ़ोन बज रहा था तो भी कभी मुझे ये लगा नहीं कि मेरा फ़ोन ही बज रहा है | तो मैं पूरे confidence के साथ अपना काम कर रहा हूँ, बल्कि जब फ़ोन बज रहा था तो इधर उधर देख भी रहा हूँ कि किस बेवक़ूफ़ का बज रहा है ! उस दिन कोई भी ये समझ नहीं पाया कि किसका फ़ोन बजा था | हुआ ये था कि फ़ोन में जो गड़बड़ी थी वो एयरटेल वालों ने सही कर दिया था और मेरे घर से माँ ने यूँ ही कॉल कर दिया था | जब एक बार में नहीं उठाया तो चिंतावश माँ ने दो बार और कर दिया ! उसके बाद दो बार दूसरे फ़ोन पर भी कर दिया था | और तो और भाई को भी किया और फ़िर दो कॉल भाई ने भी लगा दिए | बाहर निकल के जब मैंने कॉल किया तो पता चला कि कोई बात तो नहीं है बस कॉल नहीं उठाया तो चिंता होने लगी !
वहाँ से निकलते ही सबसे पहले तो मेरे दिमाग में यही आया कि आज तो बाल बाल बचे ! अगर invigilator को पता चल गया होता तो नियम तोड़ने के लिए कुछ भी सज़ा दे सकते थे, यहाँ तक कि निष्कासित भी कर सकते थे, जबकि मैं फ़ोन इस्तेमाल भी नहीं कर रहा | नियम नियम होते हैं, उन्हें अक्सर अक्षरशः लागू किया जाता है, बिना उसकी भावना देखे हुए | फ़ोन न रखने का नियम इसलिए बना कि कोई उससे मदद ना ले ले, पर नियम बन गया तो अगर आप मदद नहीं भी ले रहे और आपके पास फ़ोन पाया गया तो सज़ा तो बराबर मिलेगी ! बाद में मैंने अन्य पहलुओं पर सोचा तो एक महत्वपूर्ण सीख मिली | confidence बहुत बड़ी चीज़ है | अगर आप confidently कुछ कर रहे तो लोगों को लगता है कि इसे पता है, सही ही कर रहा होगा |
उसके कुछ ही दिनों बाद एक और घटना हुई | मैं रात को कैंटीन जा रहा था तो रास्ते में एक कुत्ता खड़ा था जो भौंकने लगा | मेरी आकस्मिक प्रतिक्रिया थी वापस जाने की, पर फ़िर मैंने कुछ और आज़माया - मैं सीधा आगे बढ़ा जैसे कि मैंने कुत्ते को देखा ही नहीं | वो फ़िर भौंका और इस बार मैंने उसकी ओर घूरा | यक़ीन मानिये, कुत्ता वापस चला गया | उस दिन मुझे पता चला कि इंसान ही नहीं, जानवर भी confidence की भाषा समझते हैं | उसके बाद से मुझे कभी किसी चीज़, इंसान या जानवर से डर नहीं लगा है |
ग़ालिब साहब का एक शेर है ...
मत पूछ कि क्या हाल था मेरा तेरे पीछे,
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।
बात है २०१० की जब मैं रूड़की में था | हमारी परीक्षा चल रही थी | तो हमारे समय पर नियम ये था कि फ़ोन को बंद या silent करके invigilator के पास छोड़ना होता था | तो मैंने भी अपना फ़ोन उधर रखा और अपने स्थान पर जाकर बैठ गया | परीक्षा एक घंटे की होती थी | कुछ १५-२० मिनट हुए होंगे कि फ़ोन बजने की आवाज़ आयी | invigilator साहब ने अपने टेबल पर देखा, उनमें से कोई भी नहीं बज रहा था | फिर वो पूरे कमरे में एक बार घूमे, पर पता नहीं चला कि आवाज़ कहाँ से आ रही | फ़िर आवाज़ बंद हो गयी | कुछ ही देर हुए होंगे कि फ़िर से आवाज़ आने लगी | फ़िर invigilator साहब पूरे कमरे में घूमे, और इस बार तो बाहर भी घूम आये पर पता नहीं चला कि आवाज़ आ कहाँ से रही है | मैं भी सोच रहा था कि कौन बेवक़ूफ़ मोबाइल बंद करना भूल गया है और ये invigilator आवाज़ समझ के पता नहीं कर पा रहा कि कहाँ से आवाज़ आ रही? कुछ समय बाद मेरे सारे सवाल लिखे हो गए और मैं जाने के लिए उठा | तब जा कर मुझे एहसास हुआ कि मेरे जेब में ही तो मोबाइल फ़ोन था जो बज रहा था |
उस ज़माने में मोबाइल फ़ोन घर घर आ तो चुके थे पर कॉल दर काफ़ी ज्यादा हुआ करते थे आज की तुलना में | ऐसे में जब टाटा डोकोमो ने नयी सेवा शुरू की जिसमे unlimited calls और messages कर सकते थे, मैंने भी एक और सिम लेने का फ़ैसला लिया | अभी मेरे पास दो फ़ोन थे, पर परीक्षा के एक दिन पहले यूँ हुआ कि मेरे पहले वाले फ़ोन में कुछ ख़राबी आ गयी और सिर्फ डोकोमो वाला फ़ोन काम कर रहा था | और परीक्षा वाले दिन मैंने डोकोमो वाला फ़ोन तो निकाल कर बाहर रख दिया था पर एयरटेल वाला जेब में ही रह गया था | अब चूँकि वो फ़ोन चालू भी नहीं था तो जब फ़ोन बज रहा था तो भी कभी मुझे ये लगा नहीं कि मेरा फ़ोन ही बज रहा है | तो मैं पूरे confidence के साथ अपना काम कर रहा हूँ, बल्कि जब फ़ोन बज रहा था तो इधर उधर देख भी रहा हूँ कि किस बेवक़ूफ़ का बज रहा है ! उस दिन कोई भी ये समझ नहीं पाया कि किसका फ़ोन बजा था | हुआ ये था कि फ़ोन में जो गड़बड़ी थी वो एयरटेल वालों ने सही कर दिया था और मेरे घर से माँ ने यूँ ही कॉल कर दिया था | जब एक बार में नहीं उठाया तो चिंतावश माँ ने दो बार और कर दिया ! उसके बाद दो बार दूसरे फ़ोन पर भी कर दिया था | और तो और भाई को भी किया और फ़िर दो कॉल भाई ने भी लगा दिए | बाहर निकल के जब मैंने कॉल किया तो पता चला कि कोई बात तो नहीं है बस कॉल नहीं उठाया तो चिंता होने लगी !
वहाँ से निकलते ही सबसे पहले तो मेरे दिमाग में यही आया कि आज तो बाल बाल बचे ! अगर invigilator को पता चल गया होता तो नियम तोड़ने के लिए कुछ भी सज़ा दे सकते थे, यहाँ तक कि निष्कासित भी कर सकते थे, जबकि मैं फ़ोन इस्तेमाल भी नहीं कर रहा | नियम नियम होते हैं, उन्हें अक्सर अक्षरशः लागू किया जाता है, बिना उसकी भावना देखे हुए | फ़ोन न रखने का नियम इसलिए बना कि कोई उससे मदद ना ले ले, पर नियम बन गया तो अगर आप मदद नहीं भी ले रहे और आपके पास फ़ोन पाया गया तो सज़ा तो बराबर मिलेगी ! बाद में मैंने अन्य पहलुओं पर सोचा तो एक महत्वपूर्ण सीख मिली | confidence बहुत बड़ी चीज़ है | अगर आप confidently कुछ कर रहे तो लोगों को लगता है कि इसे पता है, सही ही कर रहा होगा |
उसके कुछ ही दिनों बाद एक और घटना हुई | मैं रात को कैंटीन जा रहा था तो रास्ते में एक कुत्ता खड़ा था जो भौंकने लगा | मेरी आकस्मिक प्रतिक्रिया थी वापस जाने की, पर फ़िर मैंने कुछ और आज़माया - मैं सीधा आगे बढ़ा जैसे कि मैंने कुत्ते को देखा ही नहीं | वो फ़िर भौंका और इस बार मैंने उसकी ओर घूरा | यक़ीन मानिये, कुत्ता वापस चला गया | उस दिन मुझे पता चला कि इंसान ही नहीं, जानवर भी confidence की भाषा समझते हैं | उसके बाद से मुझे कभी किसी चीज़, इंसान या जानवर से डर नहीं लगा है |
ग़ालिब साहब का एक शेर है ...
मत पूछ कि क्या हाल था मेरा तेरे पीछे,
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।