Wednesday, February 17, 2016

बिन वाद, विवाद

हो गयी है पीड़ पर्वत सी, पिघलनी चाहिए 
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए... 

जी नहीं, आप गलत समझ रहे।  मैं 'भक्त' नहीं हूँ।  अरे आप भी गलत समझ रहे, मैं 'आपिया' भी नहीं हूँ।  और भाईसाब आप तो सोचना भी मत, 'कांग्रेसी' तो बिल्कुल नहीं।  तो फिर आप सोच रहे होंगे कि  मैं क्या हूँ? अजी  क़सूर आपका नहीं, माहौल का है।  न जाने क्या वक़्त आया है कि सब किसी न किसी तरफ हैं और अगर आप मेरी तरफ नहीं तो दूसरी तरफ के मान लिए जाते हैं।  अब आप सोच रहे होंगे कि ये अचानक क्या हो गया इसे।  बता दें आपको कि ये अचानक नहीं हुआ है।  लगभग तीन साल से तो चल ही रहा है।   हमेशा मैं सोचता हूँ कि ये चुनावी मौसम है, निकल जायेगा।  पर ये चुनाव भी तो ख़त्म नहीं होते ना।  आज यहाँ तो कल वहाँ।  इसी बहाने रोटी सिकती रहती है।  तो बात दरअसल ये है की राजनीतिक मामलों में पक्षीकरण बढ़ता जा रहा है और स्वस्थ चर्चा विलुप्त होती जा रही है।  'ब्रांडिंग' चल रही है सबकी। सब अपनी अपनी विचारधारा बेचने में लगे हैं।  'सोशल मीडिया' ने भी जी भर कर आग लगाने का काम किया है।  जिसके मन में जो आया कह या लिख दिया, चंद मिनटों में साथ और ख़िलाफ़ दोनों ही तरफ भीड़ इकठ्ठा हो गयी।  कहने वाला तो पतली गली से निकल लिया, बाकी लोग झगड़ते रह गए।  

शुरुआत हुई थी दिल्ली चुनाव के समय।  तीन में से कम से कम दो पक्ष तो स्पष्ट रूप से समझ चुके थे 'ब्रांडिंग' और 'सोशल मीडिया' के महत्त्व को।  'फेसबुक' और 'ट्विटर' पर सरकार बनायी जा रही थी।  जो कभी वोट देने नहीं गए और ना ही जाने वाले थे, वो विशेषज्ञ बने पड़े थे।  उस दौर में मैं सोचता था की शायद कुछ बदलाव आ रहा है देश की राजनीति में।  एक नया आदमी आया है जो परिवर्तन की बात करता है, युवा को जोड़ने की बात करता है, भ्रष्टाचार मिटाने की बात करता है।  इतना कुछ नहीं तो थोड़ा बहुत भी अगर किया और लोगों ने उसका साथ दिया तो देखा देखी और राजनीतिक दल भी थोड़ा सुधरेंगें। और फिर धीरे धीरे देश की राजनीति कुछ हद तक सही दिशा में आगे बढ़ेगी।  हमारे 'डिनर टेबल' पर ऐसे ही चर्चाएँ हुआ करती थी और लोगों ने पहले मुझे 'आपिया' और फिर 'आपटार्ड' घोषित कर दिया।  ख़ैर, जैसा कि मुझे अनुमान था, केजरीवाल मुख्यमंत्री बने।  दुनिया बदल देंगे ऐसी तो उम्मीद भी नहीं थी, लेकिन जितनी उम्मीद थी उतना भी नहीं हुआ।  बाकी लोगों की ही तरह ये भी बहानो तथा आरोप प्रत्यारोप में उलझ गए।  काम 'बैकफुट' पर जा चुका था।  मेरा नजरिया बदला और साथ ही मेरे दोस्त भी।  जैसे ही मेरे मुंह से केजरीवाल के कुछ कदमों की आलोचना शुरू हुई, मैं मोदी भक्त घोषित कर दिया गया जबकि भारतीय जनता पार्टी के कुछ क़दमों की आलोचना बंद नहीं की थी मैंने।  बस इतना ही कहा था की उपलब्ध विकल्पों में फिलहाल सबसे बेहतर यही है।  खैर, खाई बढ़ती गयी और तटस्थ रहने वाले या सबको समान दृष्टि से देखने वालो की तादाद कम होती गयी।  आम चुनाव हुए, फिर देश भर में कुछ कुछ छिट पुट घटनाएँ होती रहीं, और फिर बिहार चुनाव का वक़्त आया।  आरोप प्रत्यारोप की राजनीति चरम पर पहुँच गयी।  मैंने कहा कि नीतीश ने कुछ काम तो जरूर किया था, छवि बदलने की कोशिश की बिहार की, अपराध, खास कर फिरौती के लिए अपहरण, पर अंकुश लगे और भ्रष्टाचार भी कम हुआ। तो लोग कहने लगे कि फिर से जंगल राज आएगा तुम जैसों की वजह से।  जबकि मैंने हमेशा लालू जी का विरोध ही किया।  और जब लालू जी के ख़िलाफ़ बोला तो लोग बोलने लगे कि वो 'सामाजिक न्याय' के प्रतीक हैं और जो उन्होंने किया वो जरुरी था हजारों वर्षों के ब्राह्मणवाद को ख़त्म करने के लिए।  कुछ दोस्त तो मेरे लालू विरोध को मेरी जाति और धर्म से भी जोड़ने लगे।  और इन सब के बाद जब नतीज़े आये और लालू नीतीश गठजोड़ के पक्ष में आये तो भाजपा वाले मित्रों ने इसे हम जैसे लोगों की गलती बताया।  हाँ, उन लोगों ने भी जो खुद भी वोट डालने नहीं गए।  

अब आप ये सोच रहे होंगे कि इतनी लम्बी कहानी क्यों सुनाई और ये सब जब इतने वक़्त से चल रहा तो अब क्यों? तो वो इसलिए कि आजकल कुछ ऐसा चल रहा है जिसमें सभी पक्षों ने अपनी अपनी हदें पार कर ली।  सब अपने अपने 'पार्टी स्टैंड' के साथ अपने बयान और विचार बदलने लगे।  जब पार्टी का आधिकारिक 'ट्वीट' आया तो प्रतिक्रिया अलग और फिर जब उपाध्यक्ष भाषण दे कर आये तो प्रतिक्रिया कुछ और।  अगर आप छात्र नेताओं के बयान भी देखें तो एकरूपता नहीं है उनमें।  एक बार वो जातिवाद मिटाने की बात करते हैं तो अगले ही वाक्य में नौकरी में जाति के आधार पर आरक्षण मांगते हैं।  कभी संविधान में पूरी श्रद्धा की बात करते हैं तो कभी संविधानिक प्रक्रियाओं को नहीं मानने की बात करते हैं।  मूल सवाल 'वैचारिक स्वतंत्रता' एवं इसकी सीमाओं की है।  चर्चा इस बात पर होनी चाहिए थी कि वैचारिक स्वतंत्रता पर जो सीमाएं संविधान में लगायी गयी हैं, वो क्यों हैं, उनका क्या औचित्य है और उन्हें हटाने या बदलने से देश पर क्या असर होगा।  पर इतनी फुर्सत किसे है! लोगों ने तो अपने अपने फैसले खुद सुना दिए और चल पड़े अपनी अपनी बंदूकें निकाल कर।  देश जाए भाड़ में, तर्क जाए भाड़ में, हमें तो राजनीतिक रोटियाँ सेंकनी हैं बस।  मैंने सोचा कि ज़रा पता लगाऊँ कि आखिर वजह क्या है।  अचानक क्यों हो रहा ये सब एक उच्च स्तर के शिक्षण संस्थान में? पता चला कि कुछ ही दिनों में उधर भी चुनाव हैं ! वजह तो समझ में आ गयी और एक बार को ये भी लगा की चलो कुछ दिन झेल लेते हैं फिर चुनाव हो जाएँ तो खेल ख़त्म।  लेकिन फिर लगा कि बहुत समय से ऐसा ही चल रहा और ये चुनाव तो कभी ख़त्म होने नहीं वाले कभी भारत में।  चुनाव प्रक्रिया भी बहुत दिनों से एक सुधार की मोहताज़ है।  

अब मुद्दे के अंदर के मुद्दे की थोड़ी बात करते हैं।  कुछ सवाल उठाये गए।  ये समझना जरुरी है कि क्यों उठे और अभी क्यों उठे।  अब अगर किसी को न्यायालय द्वारा दी गयी सज़ा पर विरोध हो रहा है तो उसका नज़रिया समझना भी आवश्यक है।  पहले तो ये जानना जरुरी है कि विरोध इसलिए है कि उसे मुज़रिम नहीं मानते या विरोध सजा-ए-मौत का है।  अगर उसे मुज़रिम नहीं मान रहे तो फिर आज विरोध क्यों ? और फिर नारे भारत विरोधी क्यों ? उसके 'ख़ून' के 'बदले' की बात क्यों? और जहाँ तक मुझे याद है, ज़ुर्म साबित होने और सजा दिए जाने में काफी वक़्त का फ़ासला था।  तो फिर तब क्यों नहीं हुआ ऐसा विरोध? अगर विरोध सज़ा-ए-मौत का है तो कश्मीर का रंग क्यों, सिर्फ दो ही नाम क्यों? सवाल तर्क़ का है, बात सबको कसौटी पर कसने की है, लेकिन नतीज़ा? मुझे भक्त घोषित कर देंगें।  जबकि मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' एक सीमा के अंदर है या असीमित ?  झकझोरियेगा ज़रा खुद को और कुछ ज़वाब मिले तो बताइयेगा ज़रूर।

"सुना है तेरी यूनिवर्सिटी में कुछ तनाव है?"
"हाँ, अगले महीने छात्र संघ चुनाव है.."

2 comments:

Ankush Agrawal said...

Fair analysis.

Mayank Khandelwal said...

Pehle mujhe lagta tha ki mujhme kuch khami hai ki main mann nahi bana paa raha,
Ab lagta hai ki isi main sukoon aur shanti hai ki main mann nahi bana paa raha.