Saturday, September 12, 2009

फेर समय का

सपनो की दुनिया में गया हूँ,
याद आ रहे हैं बीते दिन,
जब रोज शाम क्रिकेट होती थी,
अब देखने का भी वक़्त नहीं है.

क्या दिन थे सुनहरे वो अपने,
खोये ख्वाबों में रहते थे हर पल,
क्या पता था दिन ऐसा आएगा,
जब सोने को इक रात नहीं है.

समय ने फेरा कैसा लिया ये,
सब दूर हो गए हैं हमसे,
बेगानों की बात मत करो,
अपनों का भी साथ नहीं है.

किसे पता था ऊपर चढ़ने का,
होता है इतना बुरा अंजाम,
खो गए हैं शिखरों पर आकर,
कोई भी अपने पास नहीं है.

2 comments:

Chandan Kumar Jha said...

बहुत ही सुन्दर भाव है कविता के । शुभकामनायें ।

स्वप्न मञ्जूषा said...

किसे पता था ऊपर चढ़ने का,
होता है इतना बुरा अंजाम,
खो गए हैं शिखरों पर आकर,
कोई भी अपने पास नहीं है.

bahut khoob..
lekin aisa nahi hai kuch dino ki hi baat hai fir sab kuch mil jaayega..
abhi mehnat se apna lakshya poora karna hai na...
wish you all the best !!