Sunday, June 21, 2009

जिंदगी मुझसे यूँ हैरान सी क्यूँ है

क्यूँ परेशान हूँ मैं जिंदगी से और
जिंदगी मुझसे यूँ हैरान सी क्यूँ है

पहुँच गये थे शिखरों पर
फिर हम ऐसे बर्बाद से क्यूँ हैं
अपनी बनाई ही तो थी सब राहें
तो हम यूँ गुमराह से क्यूँ हैं

क्यूँ परेशान हूँ मैं जिंदगी से और
जिंदगी मुझसे यूँ हैरान सी क्यूँ है
भटक रहा किसी के इंतज़ार में पर
जाता हूँ जिधर सुनसान ही क्यूँ है

सुनने को एक आवाज़ तरस रहा हूँ
सारी राहें वीरान सी क्यूँ है
क्यूँ परेशान हूँ मैं जिंदगी से और
जिंदगी मुझसे यूँ हैरान सी क्यूँ है

सबकुछ खोकर है पाया जिसको
वो मंज़िल ही बेकाम सी क्यूँ है
अब तक बस जिसको जाना है मैने
वो मुझसे अंजान सी क्यूँ है

क्यूँ परेशान हूँ मैं जिंदगी से और
जिंदगी मुझसे यूँ हैरान सी क्यूँ है

4 comments:

Ankush Agrawal said...

hats off, bahut achchha likha hai, I hope you will put your others writings also.

Ambarish said...

धन्यवाद अंकुश
जल्दी ही दूसरी कविता प्रेषित करूँगा

स्वप्न मञ्जूषा said...

पहुँच गये थे शिखरों पर

फिर हम ऐसे बर्बाद से क्यूँ हैं

अपनी बनाई ही तो थी सब राहें

तो हम यूँ गुमराह से क्यूँ हैं

kavita bahut sundar hai shabdon ka chayan aur bhav dono hi tareef ke yogya hain..
agar ye sirf kavita hai fir to theek hai nahi to kahenge
aise khayalon ko aane do
par ghar mat banane do
jeewan ki ye shuaat hai
inko abhi tumhen dena maat hai. sabk baat samhal jaayegi.
manzil zaroor mil jaayegi..

Ambarish said...

han han bas kavita hi hai... abhi na to shikhar par pahunche hain aur na hi barbaad huye hain.. :P