Monday, December 07, 2009

आखिर बुझ गया...

वो दीया,
हाँ वही,
जो जलता आ रहा है,
आंधी, पानी, तूफ़ान,
सब झेल गया,
और जलता ही रहा,
इस उम्मीद में,
के इक दिन पायेगा,
तेरे हाथों की छाँव,
और अमर हो जायेगा,
हमेशा हमेशा के लिए...
वो दीया!!!
आज हवा के,
एक हल्के झोंके ने,
बुझा दिया उसको,
हाँ,
ठीक समझा तुमने,
वही झोंका हवा का,
जो लेकर आई तुम,
अपने आँचल के साथ...
खुश ही होगा,
फिर भी वो दीया,
बुझा तो क्या,
आँचल तो तेरा था!!!

11 comments:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

sunder shabdon ke saath ....sunder kavita.......

स्वप्न मञ्जूषा said...

खुश ही होगा,
फिर भी वो दीया,
बुझा तो क्या,
आँचल तो तेरा था!!!
वाह..!!
मिटे भी तो अपनों के हाथों...बहुत खूब..
सुन्दर कविता लगी अम्बुज तुम्हारी..
और ब्लोग की साज-सज्जा भी मनोरम है...
खुश रहो..
दीदी...

अर्कजेश said...

बहुत सुंदर लिखा है अम्‍बरीश । दिल खुश हो गया पढकर । बहुत गहरी बात कह दी है तुमने । बधाई ।

Udan Tashtari said...

बहुत खूब, अम्बरीश भाई!!

जोगी said...

wow...good one !!!

हरकीरत ' हीर' said...

बुझा तो क्या,
आँचल तो तेरा था!!!

वाह....गहरी मार की .....!!
वो पिलाते रहे जहर ...हम मरते रहे बार बार....!!

गौतम राजऋषि said...

अरे बहुत सुंदर अम्बरीश...बहुत खूब लिखा है।
एक नया सा भाव...

अच्छा लगा पढ़कर। दिनोंदिन तुम्हारी लेखनी की चमक बढ़ती जा रही है।

दिगम्बर नासवा said...

प्रेम की अनुपम प्रस्तुति ...... खुद को मिटते हुवे भी खुशी का अनुभव बस प्यार में ही संभव है .........

निर्मला कपिला said...

बहुत गहरी और सुन्दर अभिव्यक्ति है बधाई

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

खुश ही होगा,
फिर भी वो दीया,
बुझा तो क्या,
आँचल तो तेरा था!

क्या बात है गहरे भाव डाले हैं कविता में, अति सुन्दर !

मनोज कुमार said...

बेहतरीन। बधाई।