वो दीया,
हाँ वही,
जो जलता आ रहा है,
आंधी, पानी, तूफ़ान,
सब झेल गया,
और जलता ही रहा,
इस उम्मीद में,
के इक दिन पायेगा,
तेरे हाथों की छाँव,
और अमर हो जायेगा,
हमेशा हमेशा के लिए...
वो दीया!!!
आज हवा के,
एक हल्के झोंके ने,
बुझा दिया उसको,
हाँ,
ठीक समझा तुमने,
वही झोंका हवा का,
जो लेकर आई तुम,
अपने आँचल के साथ...
खुश ही होगा,
फिर भी वो दीया,
बुझा तो क्या,
आँचल तो तेरा था!!!
11 comments:
sunder shabdon ke saath ....sunder kavita.......
खुश ही होगा,
फिर भी वो दीया,
बुझा तो क्या,
आँचल तो तेरा था!!!
वाह..!!
मिटे भी तो अपनों के हाथों...बहुत खूब..
सुन्दर कविता लगी अम्बुज तुम्हारी..
और ब्लोग की साज-सज्जा भी मनोरम है...
खुश रहो..
दीदी...
बहुत सुंदर लिखा है अम्बरीश । दिल खुश हो गया पढकर । बहुत गहरी बात कह दी है तुमने । बधाई ।
बहुत खूब, अम्बरीश भाई!!
wow...good one !!!
बुझा तो क्या,
आँचल तो तेरा था!!!
वाह....गहरी मार की .....!!
वो पिलाते रहे जहर ...हम मरते रहे बार बार....!!
अरे बहुत सुंदर अम्बरीश...बहुत खूब लिखा है।
एक नया सा भाव...
अच्छा लगा पढ़कर। दिनोंदिन तुम्हारी लेखनी की चमक बढ़ती जा रही है।
प्रेम की अनुपम प्रस्तुति ...... खुद को मिटते हुवे भी खुशी का अनुभव बस प्यार में ही संभव है .........
बहुत गहरी और सुन्दर अभिव्यक्ति है बधाई
खुश ही होगा,
फिर भी वो दीया,
बुझा तो क्या,
आँचल तो तेरा था!
क्या बात है गहरे भाव डाले हैं कविता में, अति सुन्दर !
बेहतरीन। बधाई।
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