बना था बोझ अंग्रेजी शाषण,
अपने ही घर में अपमानित,
हमने कहा था रंग दे बसंती...
साठ साल अपना राज,
पिछड़े के पिछड़े हैं रहे हम,
भरता जा रहा स्विस बैंक,
अब न कहें क्यों, रंग दे बसंती...
गाँधी की खादी को पहन कर,
गाँधी छपा नोट हैं लेते,
देश बेच दें पैसों खातिर,
अब न कहें क्यों, रंग दे बसंती...
क्यों न हो आतंकी हमले,
जब राज कर रहे बड़े आतंकी,
भ्रष्ट हो गए हैं सारे दल,
अब न कहें क्यों, रंग दे बसंती...
महंगाई चरम पर पहुंची,
भूखी मरे गरीब जनता,
ऐश कर रहा है जब राजा,
अब न कहें क्यों, रंग दे बसंती...
आज जरुरत आन पड़ी है,
करते हैं हम ये आह्वान,
फिर से कोई भगत सिंह आये,
कहने को, फिर रंग दे बसंती...
14 comments:
समसामयिक और सार्थक.
सही कहा है 'फिर रंग दे बसंती'
सुन्दर रचना है भाई लेकिन सिर्फ रचना :(
नेता लोगो को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला
sahee...rang de basanti!!
सार्थक प्रश्नों को उठाती सुन्दर रचना ।
सार्थक और सटीक वार करती रचना.
अम्बुज बाबू,
सही कहे हो...
आज देश को गाँधी की नहीं ..भगत सिंह की ही ज़रुरत है.......
बहुत अच्छी कविता..
गाँधी की खादी को पहन कर,
गाँधी छपा नोट हैं लेते,
देश बेच दें पैसों खातिर,
अब न कहें क्यों, रंग दे बसंती...
अब उपाय भी मिल गया है और भी कुछ लोगों को जानकारी में है. एक 62 वर्षीय महापुरुष हैं. वे जल्द ही एक ब्लॉग पर अवतरित होंगे. .
फिर पुरजोर विरोध होगा. लेकिन माध्यम दुसरा होगा.
सार्थक लेखन के लिए बधाई आपको.
aapke vichaaro se prabhavit hua/ bahut achha likhate he aap/ jaroorat he " fir rang de basant"
उन्वान बड़ा ही दमदार बना है अम्बुज इस नज़्म का...बहुत खूब !
आक्रामक सच को कहने का आपका अंदाजे बयां कुछ और है।
waaqai mein andaaz -e-bayan alag hai...
bahut sahi aur alag expression hai....
aap to katai Prasoon joshiya gaye (Sentiya gaye ki tarz par !!)
गाँधी की खादी को पहन कर,
गाँधी छपा नोट हैं लेते,
देश बेच दें पैसों खातिर,
अब न कहें क्यों, रंग दे बसंती...
ja raha hoon gaate hai....
Mohe mohe tu rang de ~basanti~
ye(~) bhi nahi chala
shukriya... ek baat jodna chahunga, ye rachna sirf padhwane ke liye nahi likhi gayi hai..
jai hind..
sir aap ne dil khush kar diya issi topic pe thodi aur kavita likho
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