Wednesday, October 21, 2009

तेरे ख़त, और उनके जवाब

तेरे वो सारे ख़त,
जो तुने कभी नहीं लिखे,
बस दिल में ही रखा,
और तुम समझती हो,
मुझ तक नहीं पहुंचे,
नहीं पहुंचे होंगे शायद,
पर उनके जवाब नहीं तो,
और क्या थे,
कागज़ के वो चंद टुकड़े,
जिन्हें आज जला आया हूँ...

12 comments:

मनोज कुमार said...

कागज़ के वो चाँद टुकड़े,
जिन्हें आज जला आया हूँ...

विरह की वेदना का भावुक वर्णन।

Mishra Pankaj said...

waah bhaai bahut sundar

Udan Tashtari said...

वाह भाई, बहुत खूब अंदाज है!!

M VERMA said...

आपके कहने का; बयाँ करने का अन्दाज़ अलग है और बहुत सुन्दर है

स्वप्न मञ्जूषा said...

अरे वाह अम्बुज बाबू,
वो ख़त जो कभी लिखे भी न गए, अपने ठिकाने पहुँच भी गए. पढ़ भी लिए गए और आज काम तमाम भी..
बहुत ही रहस्यमयी और रोचक कविता....कल्पना की उड़ान की पराकाष्ठा के क्या कहने...बहुत खूब...

अनिल कान्त said...

क्या अंदाज़ हैं जनाब के

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

Waah! bahut hi sunder abhivyakti.........

ओम आर्य said...

अम्बूज भाई आज तो बहुत ही गहरे उअतार दिया.......बधाई!

Asha Joglekar said...

खूबसूरत अहसास ।

दर्पण साह said...

kahin wo nazm yaad aa gayi...

"Teri khushboo se bhar khat..."

sabse badhiya baat ki aapki kavitaaon ka ant jaan le jaata hai...

...mujhe to lagta hai 'Kuch sapne honge' ya kuch 'yaadein' jo jala di un 'So-called-never-existing-love-letters' ke badle....

दर्पण साह said...

chalo is pe comment kar chuka hoon !!

thoda HW kum hua !!

%Aaghe chaloon%.....

Na ye bhi nahi chala !!

Puja Upadhyay said...

badi pyaari kavita hai